तुलसीदास के 10 प्रसिद्ध दोहे

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गोस्वामी तुलसीदास (Goswami Tulsidas) जी महान महाकाव्य रामचरितमानस के लेखक के रूप में जाने जाते है। उन्हें रामायण के रचयिता महर्षि बाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है। तुलसीदास जी ने जीवन की कठिन तथा गूढ़ बातों को अपने दोहे, चौपाइयों और छंदों से बड़ी हीं सरलता से समझाया है। उनके द्वारा लिखे गए प्रत्येक दोहे मे जीवन का सार है।

तुलसीदास अपनी पत्नी रत्नावली से अत्यधिक प्रेम करते थे और एक बार भयंकर बारिश और तूफान की चिंता किये बिना, भीषण अँधेरी रात में यमुना पार कर अपनी पत्नी से मिलने अपने ससुराल पहुच गये, लेकिन रत्नावली यह सब देखकर बहुत ही आश्चर्यचकित हुई और उन्होंने तुलसदास को फटकार लगाई, “लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ” और नसीहत दी कि जितना प्रेम आप मुझसे करते है उससे आधा भी यदि भगवान में होता तो तुम्हारा कल्याण हो जाता।

“अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति ।

नेक जो होती राम से, तो काहे भव-भीत ।।”

“अर्थात:- यह मेरा शरीर तो चमड़े से बना हुआ है जो की नश्वर है फिर भी इस चमड़ी के प्रति आपको इतना मोह, अगर मेरा ध्यान छोड़कर राम नाम में ध्यान लगाते तो आप भवसागर से पार हो जाते।”

पत्नी के उपदेश तुलसी के मन में लग गए और उन्होंने गृहस्थ आश्रम त्याग दिया और भक्ति के सागर में डूब गए। इसी उलहना ने उन्हें तुलसी से “गोस्वामी तुलसीदास” (Goswami Tulsidas) बना दिया। फिर इसके बाद तुलसीदास जी ने अनेक ग्रंथो और काव्यों की रचना की।

तो आईये हम आपको तुलसीदास द्वारा रचित उनके 10 प्रसिद्ध दोहे हिंदी अर्थ सहित बताते है।

तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक ।

साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक ।।

अर्थात:- तुलसीदास जी कहते हैं कि विपत्ति में अर्थात मुश्किल वक्त में जो चीजें मनुष्य का साथ देती है वे है, ज्ञान, विनम्रता पूर्वक व्यवहार, विवेक, साहस, अच्छे कर्म, आपका सत्य और राम (भगवान) का नाम। 

काम क्रोध मद लोभ की, जौ लौं मन में खान ।

तौ लौं पण्डित मूरखौं, तुलसी एक समान ।।

अर्थात:- जब तक व्यक्ति के मन में काम की भावना, गुस्सा, अहंकार, और लालच भरे हुए होते हैं। तब तक एक ज्ञानी व्यक्ति और मूर्ख व्यक्ति में कोई अंतर नहीं होता है, दोनों एक हीं जैसे होते हैं।

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तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहुँ ओर,

बसीकरन इक मंत्र है परिहरू बचन कठोर।।

अर्थात:- तुलसीदास जी कहते है मीठी वाणी बोलने से चारो ओर सुख का प्रकाश फैलता है, और मीठी बोली से किसी को भी अपने ओर सम्मोहित किया जा सकता है। इसलिए सभी मनुष्यों को कठोर और तीखी वाणी छोडकर सदैव मीठी वाणी ही बोलना चाहिए।

 मो सम दीन न दीन हित, तुम्ह समान रघुबीर।

अस बिचारि रघुबंस, मनि हरहु बिषम भव भीर ॥

अर्थात:- हे रघुवीर, मेरे जैसा कोई दीनहीन नहीं है और तुम्हारे जैसा कोई दीनहीनों का भला करने वाला नहीं है। ऐसा विचार करके, हे रघुवंश मणि मेरे जन्म-मृत्यु के भयानक दुःख को दूर कर दीजिए।

तुलसी जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ।

तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ।।

अर्थात:- तुलसीदास जी कहते है, जो लोग दूसरों की निन्दा करके खुद सम्मान पाना चाहते है। ऐसे लोगों के मुँह पर ऐसी कालिख लग जाती है, जो लाखों बार धोने से भी नहीं हटती है।

करम प्रधान विस्व करि राखा।

जो जस करई, सो तस फलु चाखा।।

अर्थात:- तुलसीदास जी कहते है, ईश्वर ने इस संसार में कर्म को महत्ता दी है, जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल भी भोगना पड़ेगा।

तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए।

अनहोनी होनी नही, होनी हो सो होए।।

अर्थात:- तुलसीदास जी कहते है की हमे भगवान पर भरोसा करते हुए बिना किसी डर के साथ निर्भय होकर रहना चाहिए, कुछ भी अनावश्यक नही होगा। जो कुछ होना है तो वो होकर रहेगा इसलिए व्यर्थ चिंता किये बिना हमे ख़ुशी से जीवन व्यतीत करना चाहिए। 

काम क्रोध मद लोभ ,सब नाथ नरक के पन्थ।

सब परिहरि रघुवीरहि, भजहु भजहि जेहि संत।।

अर्थात:- तुलसी जी कहते है की काम, क्रोध, लालच सब नर्क के रास्ते है, इसलिए हमे इनको छोडकर ईश्वर की प्रार्थना करनी चाहिए जैसा की संत लोग करते है।

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दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।

तुलसी दया न छांड़िए, जब लग घट में प्राण।।

अर्थात:- तुलसीदास जी कहते है की मनुष्य को कभी भी दया का साथ नही छोड़ना चाहिए क्योकि दया ही धर्म का मूल है, और उसके विपरीत अहंकार समस्त पापो की जड़ है।

एक अनीह अरूप अनामा, अज सच्चिदानन्द पर धामा । 

ब्यापक विश्वरूप भगवाना, तेहिं धरि देह चरित कृत नाना ।।

अर्थात:- भगवान एक हैं, उनकी कोई इच्छा नहीं है, उनका कोई रूप या नाम नहीं है। वे अजन्मा औेर परमानंद के परमधाम हैं। वे सर्वव्यापी विश्वरूप हैं। उन्होंने अनेक रूप, अनेक शरीर धारण कर अनेक लीलायें की हैं।


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