भारत के महान संत कबीर दास हिंदी भाषा के प्रसिद्द कवि है। कबीर के दोहे अपनी सरलता के लिए जाने जाते हैं। यह इतने सरल है की आम व्यक्ति भी इन्हे पढ़ कर इनका अर्थ आसानी से समझ सकता है।
ज्यादातर कबीर के दोहे सांसारिक व्यावहारिकता को दर्शाते हैं। संत कबीर का जीवन अत्यंत कठिनाइयों से भरा हुआ था परंतु फिर भी उन्होंने समाज में फैली बुराइयों को मिटाने के लिए अपना पूर्ण जीवन लगा दिया। कबीर ने समाज में फैली कुरितियों और अंधविश्वास को मिटाने के लिए दोहे और पद की रचना की, जिनका मुख्य उद्देश्य कुरीतियों पर वार करना था।
उनके दोहे आज के युग मे भी सार्थक है। यह आज भी उतने ही लाभदायक है जितने तब थे। क्योंकि आज भी समाज अनेको बुराइयों से घिरा हुआ है और संत कबीर दास जी के दोहे समाज को एक नई दिशा देने का कार्य करते हैं। जो उनके दोहो को जीवन मे उतारता है, वो कभी भी सांसारिक मोहमाया के कारण दुखी नहीं होगा। उसे निश्चय ही मन की शांति प्राप्ति होगी।
कबीर का प्रत्येक दोहा अपने अंदर अथाह अर्थ समाया हुआ है। हम आपको बताएंगे संत कबीर दास के प्रसिद्ध दोहे, अर्थ के साथ जो आपको जिंदगी जीने का एक नया रास्ता दिखाएंगे हैं।
संत कबीर दास के 25 दोहे हिंदी अर्थ सहित
1. कबीर कुत्ता राम का, मुतिया मेरा नाउं।
गले राम की जेवड़ी, जित खैंचै तित जाउं।।
अर्थ:– कबीर दास जी कहते हैं कि मैं तो राम का कुत्ता हूँ अर्थात मैं तो राम का भगत हूँ और मोती मेरा नाम है। मेरे गले में राम नाम की जंजीर है, जिधर वह ले जाते है मैं उधर ही चला जाता हूँ।
2. यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।
अर्थ:– कबीर दास जी कहते हैं कि यह शरीर विष से भरा हुआ है और गुरु अमृत की खान है। यदि आपको अपना सर अर्पण करके भी सच्चा गुरु मिलता है, तो भी यह सौदा बहुत सस्ता है।
3. माला फेरत जग गया, गया न मन का फेर।
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर।।
अर्थ:– कबीर दास जी कहते हैं कि माला फेरते हुए कई युग बिता दिए लेकिन मन की अशांति नहीं मिट पायी, तो ऐसी माला फेरने का क्या फायद। हाथों से माला को जपना छोड़कर मन से माला को जपना शुरू करो अर्थात मन से परमात्मा का स्मरण करो तभी मन की अशांति मिट सकती है।
4. आय हैं सो जायेंगे, राजा रंक फ़क़ीर।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बंधे जात जंजीर।।
अर्थ:– कबीर दास जी कहते हैं कि मृत्यु सबसे बड़ा सत्य है जो एक दिन सबको आनी है। जो इस संसार में आया है, चाहे वह अमीर हो या गरीब, वह एक न एक दिन इस संसार से चला जाता है। अंत समय में मौत सबको एक ही जंजीर से बांधकर ले जाएगी, फिर वो चाहे राजा हो या फ़क़ीर। मृत्यु को सत्य मानकर अपने कर्म करते चलो।
5. तिनका कबहुं ना निंदिए, जो पाँवन तर होय।
कबहुं उड़ी आंखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।।
अर्थ:– कबीर दास जी का कहना हैं कि किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए। चाहे एक तिनका या एक कण ही हो उसकी निंदा भी न करो। क्या पता वह कब हवा के झोंके से उड़ कर आंख में पड़ जाए, जिसका दर्द असहनीय होगा इसलिए निंदा नहीं करना चाहिए। एक छोटे से छोटे प्राणी व व्यक्ति के महत्त्व को स्वीकार करो वह भी समय पर आपके काम आ सकता है।
6. जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।
अर्थ:– कबीरदास जी कहते हैं कि साधु की जाति नहीं होती है। साधु का ज्ञान ही उसका मूल्य, उसकी पहचान होती है। इसलिए साधु की जाति नहीं पूछना चाहिए बल्कि साधु का ज्ञान ग्रहण करना चाहिए। जिस प्रकार तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का, उसी प्रकार शरीर का नहीं उसमे व्याप्त ज्ञान का मूल्य होता है जो परिश्रम और साधना से ही मिल पता है। इसलिए साधु के जात पात की नहीं उसके ज्ञान की पूजा करनी चाहिए।
7. नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाये।
मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाये।।
अर्थ:– कबीर जी कहते हैं कि कितना भी नहा धो लीजिये, यदि मन का मैल ही न साफ हो तो ऐसे नहाने धोने का क्या फायदा। जिस प्रकार मछली हमेशा पानी में ही रहती है लेकिन फिर भी वो साफ नहीं होती उसमें से बदबू आती रहती है।
8. कहैं कबीर देय तू, जब लग तेरी देह।
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह।।
अर्थ:– संत कबीरदास कहते हैं कि जब तक ये शरीर है, तब तक दोनों हाथों से दान करते रहिए, दूसरों के लिए अच्छे कार्य करते रहिए। जब देह से प्राण निकल जाएगा, फिर इस सुन्दर शरीर को कोई नहीं पूछेगा, जब यह देह राख हो जाएगी, अतः अच्छे कार्य करने का यही सही समय है।
9. दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
अर्थ:– इस संसार में मनुष्य का जन्म मिलना बहुत दुर्लभ है। यह मानव शरीर बार-बार नहीं मिलता। जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लगता, उसी प्रकार इस समय का सदुपयोग करो यह समय फिर नहीं आएगा।
10. धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।।
अर्थ:– कबीर दास जी कहते हैं कि जिस प्रकार माली भले ही पेड़ में हर दिन सौ घड़े पानी डाले, लेकिन पेड़ पर फल तो सही ऋतु आने पर ही लगते हैं। ठीक उसी प्रकार हम चाहे कितनी भी जल्दबाज़ी कर लें, सही काम उचित समय आने पर ही पूरे होते हैं। इसलिए हमे धीरज से सब काम करने चाइए। जब सही समय आएगा तो आपको अच्छे कामों का फल ज़रूर मिलेगा।
11. माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर ।
अर्थ:– कबीर जी कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती। तो मनुष्य क्यों इस माया जाल मे फाँसा है।
12. माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
अर्थ:– कबीर दास जी कहते हैं कि भगवान का नाम लेने और माला के मनके घूमाने में तुमने सारा जीवन बिता दिए। लेकिन अब तक तुम्हे अपने मन की शांति की प्राप्ति नहीं हुई। इसलिए इस हाथ में पकड़े मनके को जिसे तुम माला में डालकर घुमा रहे हो इन्हें छोड़ कर अपने मन के मनको का ध्यान करो। अपने मन को शुद्ध करो, अपने विचार पर काबू पाओ तभी तुम्हें मन की शांति की प्राप्त होगी। इसलिए हाथ में पकड़ी माला फेरने से अच्छा है मन के मनके फेरों।
13. जिहि घट प्रेम न प्रीति रस, पुनि रसना नहीं नाम।
ते नर या संसार में, उपजी भए बेकाम ॥
अर्थ:– कबीर दास कहते हैं कि जिनके हृदय में न प्रेम है, न प्रेम का रस है और जिनकी जिह्वा पर राम नाम भी नहीं है। वे मनुष्य इस संसार में पैदा होकर भी सार्थक नहीं हुआ है, उसने मानव जीवन को व्यर्थ कर दिया। राम के प्रेम मे डूबे रहना ही जीवन का सार है।
14. जाता है सो जाण दे, तेरी दसा न जाइ।
खेवटिया की नांव ज्यूं, घने मिलेंगे आइ॥
अर्थ:– कबीर दास कहते हैं जो जाता है उसे जाने दो, तुम अपने आप को मत बदलो, अपनी दिशा से मत भटको। यदि तुम अपने स्वरूप में बने रहे तो केवट की नाव की तरह अनेक व्यक्ति स्वयं तुमसे आकर मिलेंगे। तुम्हारे साथी बन जाएंगे।
15. कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी ।
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।।
अर्थ:– कबीर कहते हैं, तुम क्यों अज्ञान की नींद में सो रहे हो? उठो, जागो, सजग हो जाओ, ज्ञान के प्रकाश को हासिल कर प्रभु का ध्यान करो। वह दिन दूर नहीं जब तुम्हें गहरी निद्रा में सो ही जाना है, जब तक जाग सकते हो जागते क्यों नहीं? प्रभु का नाम स्मरण क्यों नहीं करते?
16. मैं मैं मेरी जिनी करै, मेरी सूल बिनास ।
मेरी पग का पैषणा, मेरी गल की पास ॥
अर्थ:– कबीर जी कहते है घमंड और अहंकार में मत फंसो, मेरा मेरा, कि रट मत लगाओ। ये विनाश की जड़ हैं मेरा मेरा करने के कारण ही सब नष्ट हो जाता हैं। ममता पैरों की जंजीर और गले की फांसी है
17. करता था तो क्यूं रहया, जब करि क्यूं पछिताय ।
बोये पेड़ बबूल का, अम्ब कहाँ ते खाय ॥
अर्थ:– संत कबीर कहते हैं कि जब तू गलत काम कर रहा था तो चुप क्यों बैठा था? अब कर्म करके क्यों पछता रहा है? जब पेड़ बबूल का लगाया है तो आम कैसे खाएगा।
18. रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल सा, कौड़ी बदले जाय ॥
अर्थ:– कबीर दास जी कहते हैं कि रात सोते हुए गँवा दी और दिन मे भोजन से फुर्सत नहीं। आपको जो ये मनुष्य जन्म मिला है, वह हीरे के सामान बहुमूल्य है जिसे तुमने व्यर्थ कर दिया। तुमने कुछ भी ऐसा काम नहीं किया जिसे इसका मूल्य बड़े, बल्कि ये कौड़ियों में बदलता जा रहा है।
19. मूरख संग न कीजिए ,लोहा जल न तिराई।
कदली सीप भावनग मुख, एक बूँद तिहूँ भाई ॥
अर्थ:– कबीर जी कहते है। मूर्ख का साथ कभी नहीं करना चाहिए, उससे कुछ भी लाभ नहीं होना। मूर्ख लोहे के सामान है जो जल में तैरता नहीं, डूब जाता है। संगति का प्रभाव इतना पड़ता है कि आकाश से गिरी एक बूँद केले के पत्ते पर गिर कर कपूर, सीप के अन्दर गिर कर मोती और सांप के मुख में पड़कर विष बन जाती।
20. पढ़ी पढ़ी के पत्थर भया लिख लिख भया जू ईंट ।
कहें कबीरा प्रेम की लगी न एको छींट॥
अर्थ:– कबीर जी कहते है ज्ञान से बड़ा प्रेम है – बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर, बहुत ज्ञान हासिल करके यदि मनुष्य पत्थर सा कठोर और निर्जीव हो जाए – तो ऐसे ज्ञान से क्या पाया? ऐसे ज्ञान का कोई लाभ नहीं, जो मनुष्य को रूखा और कठोर बनाता है जिस मनुष्य के मन मे प्रेम नहीं, वो प्रेम के आभाव मे पत्थर हो जाता है, प्रेम की एक बूँद – एक छींटा भर इस कठोरता को मिटाकर मनुष्य को सजीव बना देती है।
21. दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय।
बिना जीव के श्वास से, लोह भस्म हो जाये।।
अर्थ:– कबीर जी कहते हैं कि कभी भी किसी दुर्बल व्यक्ति को मत सताइये। क्योंकि दुर्बल की बदुआ में बहुत शक्ति होती है जो किसी को भी नष्ट कर सकती है। ठीक उसी प्रकार जैसे निर्जीव खाल से लोहे को भी भस्म किया जा सकता है।
22. साधु भूखा भाव का धन का भूखा नाहीं ।
धन का भूखा जो फिरै सो तो साधु नाहीं ॥
अर्थ:– कबीरदास जी कहते है। साधु भाव का भूखा होता है उसका मन केवल भाव को जानता है। वह धन का लोभी नहीं होता, जो धन का लालची होता है जो बस धन को ही अपना भगवान मानता है वह साधु नहीं हो सकता।
23. देह धरे का दंड है सब काहू को होय ।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय॥
अर्थ:– मानव शरीर के साथ कष्ट तो लगा रहता है जीवन मे अनेको दुःख तथा परेशानियाँ आती है, जो सबको भुगतनी पढ़ती है, बस अंतर इतना ही है की बुद्धिमान या ज्ञानी व्यक्ति इस दुःख को समझदारी से भोगता है और संतुष्ट रहता है, जबकि अज्ञानी दुखी मन से रोते हुए सब कुछ झेलता है।
24. मन मैला तन ऊजला, बगुला कपटी अंग ।
तासों तो कौआ भला, तन मन एकही रंग ॥
अर्थ:– कबीर जी कहते है। जिस मानव का मन काला और शरीर उजला हो, वे बगुले के समान कपटी और खतरनाक होते हैं। ऐसे लोगों से तो कौआ अच्छा है जिसका तन और मन एक जैसे है और वह किसी को छलता भी नहीं है। हमे भी ऐसे मनुष्य का साथी होना चहिए।
25. पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
एक दिना छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात।।
अर्थ:– कबीर का कथन है कि जैसे पानी के बुलबुले एक श्रण मे खत्म हो जाते है, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षण भर का है। जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं सूर्य निकल आता है, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।
Very nice 👌👌🙏🙏