गणेश चतुर्थी (Ganesh Chaturthi) की शुरुआत होने वाली है। इस पर्व को सम्पूर्ण देश मे धूमधाम से मनाया जाता है। इसे विनायक चतुर्थी (Vinayak Chaturthi) के नाम से भी जाना जाता है। यह त्यौहार, बुद्धि के दाता भगवान गणेश का जन्मोत्सव है, भाद्रपद (भादो) माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को गणेश चतुर्थी मनाते हैं। जो पूरे देश में 10 दिनों के लिए उत्साह और भव्यता के साथ मनाया जाता है।
वैसे यह उत्साह गणेश चतुर्थी से काफी दिन पहले ही शुरू हो जाता है क्योंकि कलाकार भगवान गणेश की अनगिनत मूर्तियों को अलग-अलग पोज़, रंगों और आकारों में ढालते हैं। भक्त अपने भगवान का स्वागत करने के लिए घरो की सजावट करते है और अनेको मिठाइयों बनाते हैं, विशेष रूप से – मोदक। गणेश चतुर्थी (Ganesh Chaturthi) वाले दिन भक्त प्यारे बप्पा (Ganpati Bappa) का अपने घर लाकर उनका स्वागत सत्कार करते है। फिर 10वें दिन यानी कि अनंत चतर्दशी (Ananta Chaturdashi) को विसर्जन के साथ मंगलमूर्ति भगवान गणेश को विदाई दी जाती है।
गणेश को 108 अलग-अलग नामों से जाना जाता है वह कला और विज्ञान के भगवान और ज्ञान के देवता हैं। मान्यता है कि भगवान गणेश की अराधना करने से सुख, समृद्धि और वैभव की प्राप्ति होती है। किसी भी अनुष्ठानों और समारोहों की शुरुआत से पहले भगवान गणेश की पूजा करते है और निर्विघन कार्य सम्पन होने की प्राथना करते है। इसलिए भगवान गणेश को विनायक या विघ्नहर्ता भी कहा जाता है। ज्ञान और सौभाग्य का प्रतीक, गणेश, भगवान शिव और देवी पार्वती के छोटे पुत्र हैं।
आइये गणेश चतुर्थी के इस खास मौके पर जानते है भगवान गणेश के जन्म की कहानी।

भगवान गणेश के जन्म से जुड़ी तीन कहानियाँ प्रचलित है।
शिवपुराण के अनुसार माता पार्वती ने गणेश का निर्माण किया था। कथा के अनुसार माता पार्वती जब भी स्नानघर मे स्नान करने जाती तो, किसी शिवगण को द्वार पर पहरेदारी के लिए बैठा जाती थी। परन्तु दुविधा यह थी पहरेदार होने के पश्चात भी भगवान शिव स्नानघर मे चले आते थे, क्योकि किसी भी शिवगण मे इतनी हिम्मत नहीं थी, की भगवान को मना कर सके।
तब देवी पार्वती को एहसास हुआ द्वार पर कोई ऐसा होना चाहिए जो किसी को भी अंदर न आने दे। बस इसी विचार से माता पार्वती ने अपने शरीर पर उबटन लगाया इसके बाद जब उन्होंने अपने शरीर से उबटन उतारा तो उस मैल से उन्होंने एक पुतला बनाया और फिर उस पुतले में प्राण डाल दिए। इस तरह से गणेश पैदा हुए थे। उन्हें आशीर्वाद देते हुए माता पार्वती ने कहा तुम मेरे पुत्र हो और आदेश दिया कि तुम मेरे द्वार पर बैठ जाओ और पहरेदारी करो, जब तक मेरी आज्ञा न हो किसी को भी अंदर नहीं आने देना। माता ने एक छड़ी गणेश को दी और स्नान करने चली गयी।
कुछ समय बाद भगवान शंकर वहां आए और उन्होंने कहा मुझे अंदर जाना है, पार्वती से मिलना है। परन्तु गणेश ने उन्हें प्रवेश करने से रोक दिया। गणेश को भगवान शिव के बारे में पता नहीं था और न ही शिवजी को पता था की बालक कौन है। शिव जी ने गणेश को बहुत समझाया की उन्हें अंदर जाने दे परन्तु माँ की आज्ञा मानते हुए गणेश जी ने मना कर दिया। अतः शिव जी को वहां से जाना पड़ा। यह बात इतनी बड़ गयी की गणेश से लड़ने के लिए शिवगण आ गए, उनसे बात नहीं बनाई तो देवता आए, फिर स्वयं भगवान विष्णु और बृह्मा जी को आना पड़ा, पर इससे भी कुछ नहीं हुआ।
फिर भगवान शिव स्वयं आए, दोनों मे विवाद हुआ और उस विवाद ने भयंकर युद्ध का रूप ले लिया। गणेश जी युद्ध करते गए परन्तु गणेश को कोई हरा नहीं पाया। तब शिव जी ने विष्णु जी के साथ मिल कर एक योजना ला गई। जब गणेश जी की विष्णु के साथ लड़ाई हो रही थी तब भगवान शिव ने मौका देख कर अपना त्रिशूल निकाला और गणेश का सिर धड़ से अलग कर दिया।
जब माता पार्वती को इस बात का पता लगा तो वह बाहर आईं और यह देख कर क्रोधित हो गयी, उन्होंने शिवजी से कहा कि आपने मेरे बेटा का सिर काट दिया। शिवजी ने पूछा कि ये तुम्हारा बेटा कैसे हो सकता है। तब माता पार्वती ने पूरी कथा बताई और माता का गुस्सा इतना बड़ गया की, गुस्से मे माँ ने विराट रूप धारण कर लिया और अपनी शक्तियों को सम्पूर्ण श्रृष्टि को नष्ट करने का आदेश दे दिया। चारो और हाहाकार मच गया, सबने माँ को मानाने की बहुत कोशिश करी परन्तु कुछ नहीं हुआ। फिर सभी देवी देवताओं ने मिल कर माता की स्तुति करी जिससे माँ शांत हुई। शिवजी ने माता पार्वती को मनाया और कहा मैं तुम्हारे पुत्र मे प्राण डालूँगा और यह फिर जीवित हो जायेगा। लेकिन प्राण डालने के लिए एक सिर चाहिए।
तो शिव जी ने सभी देवताओं से कहा उत्तर दिशा मे जाओ और वहां जो भी मां अपने बच्चे की तरफ पीठ कर के सो रही हो उस बच्चे का सिर ले आना। सभी देवता गए लेकिन उन्हें कोई भी ऐसा बालक नहीं मिला, क्योंकि हर माँ अपने बच्चे की तरफ मुँह करके सोती है। गरूड़ जी को भटकते हुए एक हथिनी मिली जो अपने बच्चे की तरफ मुंह कर के नहीं सो रही थी, तो गरूड़ जी उस शिशु हाथी का सिर ले आए। सभी देवता केवल एक हाथी के सिर का प्रबंधन कर सके तो शिव जी के पास गणेश को वापस लाने के लिए इसके अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। अतः भगवान ने हाथी के सिर को बालक के शरीर से जोड़ दिया और उसमें प्राणों का संचार कर दिया।
भगवान गणेश के पुनजीवित होने के पश्चात शिव जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया। आज के बाद जब भी किसी प्रकार की पूजा की जाएगी तो अन्य देवताओं से सबसे पहले तुम्हारी पूजा होगी। तुम्हारी पूजा के बिना कोई भी कार्य सम्पन नहीं होगा। कहा जाता है कि बालक को सभी देवताओं ने अनेकों वरदान दिए। सभी गणों का स्वामी होने के कारण भगवान गणेश को गणपति कहा जाता है। गज (हाथी) का सिर होने के कारण इन्हें गजानन कहते हैं।
तो यह थी गणेश चथुर्ती से जुड़ी भगवान गणेश की पहेली कहानी आइये अब दूसरी देखते है।
श्री गणेश चालीसा में वर्णित है कि माता पार्वती ने पुत्र प्राप्ति के लिए कठोर तप किया। माँ पार्वती की इच्छा थी की उन्हें एक श्रेष्ठा पुत्र की प्राप्ति हो। इस पर शिवजी ने उन्हें पुण्यक व्रत रखने की सलाह दी। जिसे रखने से सभी इच्छाएं पूर्ण होती है, इस व्रत की अवधी एक साल होती है। माता ने व्रत रखा और व्रत की समाप्ति पर इस तप से प्रसन्न होकर स्वयं श्री ब्रह्मा ने उन्हें यह वरदान दिया कि मां आपको बिना गर्भ धारण किए ही दिव्य और बुद्धिमान पुत्र की प्राप्ति होगी। ऐसा कह कर वे अंतर्ध्यान हो गए और पालने में बालक आ गया। बालक के जन्म से चारों और प्रकाश छा गया चारों लोक मंगलमय हो गए।
भगवान शिव और पार्वती ने विशाल उत्सव रखा। सभी देवी, देवता, सुर, गंधर्व और ऋषि, मुनि, बालक को देखने आने लगे। कुछ समय पश्चात शनि महाराज भी माता पार्वती और भगवान शिव के पुत्र गणेश को देखने आए। परन्तु वे अपना सर झुका कर खड़े रहे भगवान का दर्शन नहीं किया। माता पार्वती ने बोला आप बालक से मिलने आये है और बालक का दर्शान भी नहीं कर रहे। कारण पूछने पर पता चला की शनि देव को उनकी पत्नी ने श्राप दिया है की वह अपनी दृष्टि जिस पर भी डालेंगे उसका विनाश हो जायेगा। ये सुन माता ने कहा श्राप मिला है तो विफल नहीं जा सकता, पर मुझे लगता है उत्तम विचार के साथ कोई कार्य किया जाये तो कुछ गलत नहीं होता, आप हमें देखिये हम दोनों को कुछ नहीं होगा। माता पार्वती ने उनसे बालक को चलकर देखने और आशीष का आग्रह किया।
जैसे ही शनि महाराज ने अपनी दृष्टि बालक की और करी, उसी क्षण बालक का सिर धड़ से अलग हो गया। यह देख माता पार्वती मूर्छित हो गयी, चारों तरफ हाहाकार मच गया, उत्सव का माहौल मातम में परिवर्तित हो गया। शनि देव सिर झुकाये खड़े थे।
तुंरत सभी देवताओं को चारों दिशा मे जाकर उत्तम सिर खोज कर लाने को कहा गया। गरूड़ जी उत्तर दिशा की ओर गए वहां से हाथी के बच्चे का सिर लेकर आए। इस सिर को शंकर जी ने बालक के शरीर से जोड़ दिया और पुनः बालाक मे प्राण डाले। इस तरह गणेश जी का सिर हाथी का हुआ।
परन्तु पार्वती जी ने इस पर आपत्ति जताई की अब तो मेरा बालक कुरूप दिखेगा सब इसका मजाक बनायेंगे। इस पर विष्णु जी ने कहाँ आपको यही चिंता है तो मैं इससे आशीर्वाद देता हूँ, यह बालक सबसे अधिक बुद्धिमान होगा सबसे पहले इसी की पूजा की जाएगी। इसके नाम से सभी कार्य बिना किसी कठिनाई के सम्पन हो जाएगे। तब जाकर माता पार्वती खुश हुई।
इन दोनों कहानियों के अलावा एक और कहानी प्रचलित है आइए आपको बताते है।
अन्य कुछ कथाकारों के अनुसार भगवान गणेश को शिव और पार्वती ने देवतों के अनुरोध पर बनाया था। एक बार की बात है सभी देवता भगवान शिव और माता पार्वती के पास गए और देवताओं ने प्रभु से बिनती करी कि राक्षसों से देवतों की रक्षा करने के लिए कोई उपाए करे, राक्षसों ने बहुत उत्पात मचा रखा है। सभी देवों की आग्रह करने पर शिव और पार्वती ने अपनी शक्तिओं से एक पुत्र उत्पन किया। परन्तु गणेश का रूप, उनकी काया इतनी सुन्दर थी की शिव जी सोच मे पड़ गए की इसके स्वरुप की सुंदरता देख सभी देव-दानव इस बालक से जलने लगेंगे। इसी विचार से भगवान शिव ने गणेश का पेट मोटा कर दिया और उसका सिर हाथी का कर दिया। बालक का नाम गणेश रखा गया। देवताओ की मदद करने के लिए गणेश विघ्नहर्ता और रक्षासों के मार्ग मे बाधा बने के कारण, वह रक्षासों के विघ्नकर्त्ता (बाधा-निर्माता) बनें।
हम आशा करते है, हमारी भगवान गणेश से जुड़ी यह जानकारी आपके लिए लाभकारी हो और हमारी यह कोशिश आपको पसंद आए। विघ्नहर्ता गणेश आपके सब विघ्न दूर करे और आपके घर सुख, समृद्धि और शांति का निवास हो।
“गणपति बप्पा मोरया, मंगलमूर्ति मोरया।“